रिव्यू: देश के अधिकतर घरों के किचन की कहानी ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ (2024)

(स्पॉलयर अलर्ट)

किचन से एक पानी का गिलास लेने में कितना समय लगता है? जवाब होगा शायद कुछ सेकेंड्स!

फिर भी अक्सर घरों में मर्दों को ये पानी का गिलास औरतें ही पकड़ाती आई हैं. पति ऑफिस से घर आया है, पानी ला दो. भाई खेलकर थक गया है, एक गिलास पानी ला दो. ये वो बातें हैं जो हर घर में ‘आम’ हैं. लेकिन यही पानी का गिलास जब हर रोज दिन में चार बार लाना पड़े तो झुंझलाहट होती है.

ये झुंझलाहट जब ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ फिल्म के एक सीन में दिखती है, तो ये गुस्सा सिर्फ उस एक महिला का नहीं दिखता, बल्कि इसमें भारत के सैकड़ों घरों में किचन में कैद महिलाओं की झुंझलाहट नजर आती है.

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राइटर-डायरेक्टर जियो बेबी की मलायाली फिल्म ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ अमेजन प्राइम पर रिलीज हो गई है. रिपोर्ट्स थीं कि इस फिल्म को नेटफ्लिक्स और प्राइम ने पहले मना कर दिया था, जिसके बाद फिल्म नीस्ट्रीम पर रिलीज हुई.

रिलीज हुई तो तारीफ हुई और अब फिल्म एक मेनस्ट्रीम OTT प्लेटफॉर्म पर रिलीज हो गई है और फिर तारीफें बटोर रही है.

फिल्म तारीफें बटोरने की पूरी हकदार है. फिल्म में निमिषा सजयन और सूरज वेंजरामूदु ने एक शादीशुदा जोड़े का किरदार निभाया है. फिल्म के शुरुआती सीन में ही जियो बेबी ने ख्वाहिशें और बंदिशें साथ-साथ दिखाई हैं. एक तरफ एक महिला है जो डांस कर रही है, वहीं दूसरे सीन में किचन में बन रहे तरह-तरह के पकवान जैसे उसकी ख्वाहिशों पर पड़ने वाली जंजीर की तरह लगते हैं.

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फिल्म की कहानी सीधी है- एक शादीशुदा जोड़ा और उसकी रोजमर्रा की जिंदगी. शादी कर के लड़की ससुराल आती है और परिवार के रीति-रिवाजों के मुताबिक खुद को ढालने की कोशिश करती है. वो अपने पति की पसंद का खयाल रखती है, काम में सास का हाथ बंटाती है, और ससुर को गर्म चाय परोसती है.

आप कहेंगे इसमें क्या खास है? तो मैं कहूंगी वो पितृसत्ता, जो हमारे-आपके घरों में सदियों से पैर जमाए बैठी है, जिसे कुरेदकर हटाने की जरा कोशिश करो तो इस ‘समाज की नींव’ हिलने लगती है. इस फिल्म ने अपने हर सीन में उस पितृसत्ता को कुरेदा है.

पत्नी की अपनी ख्वाहिशें हैं. वो डांस टीचर बनना चाहती है, लेकिन नहीं बन सकती. क्यों? क्योंकि ससुर को बहू का काम करना नहीं पसंद. क्योंकि बहू जो रोज सुबह उठकर, किचन में तपकर दो हष्ट-पुष्ट मर्दों का खयाल रख रही है, वो काम मंत्रियों और अधिकारियों के काम से कहीं बेहतर है. ससुर बड़े ऐंठ में कहता है कि उसकी पत्नी ने एमए करने के बाद भी घर की जिम्मेदारी उठाना बेहतर समझा और इसलिए ही आज बच्चे अच्छी जगह पर हैं. ससुर आगे कहता है कि घर पर महिलाओं का रहना ‘शुभ’ होता है.

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घरेलू कामों और मातृत्व का महिमामंडन कर मर्द सदियों से औरतों को किचन में बंद करते आए हैं. ये फिल्म उसी को आईना दिखाती है.

इस फिल्म में मर्द महिलाओं पर हाथ नहीं उठाते. उन्हें गालियां नहीं देते, लेकिन फिर भी आपके अंदर उनके प्रति गुस्सा और नफरत भर जाता है और आप महिलाओं के लिए बेचैन हो जाते हैं, कि आखिर कब वो इससे बाहर निकलेंगी.

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जब ‘थप्पड़’ की अमृता की याद आती है

इस फिल्म की मुख्य किरदार और ‘थप्पड़’ की अमृता में काफी समानताएं नजर आती हैं. शादी के बाद दोनों की जिंदगी एक जैसी हो जाती है. सुबह उठो, किचन में जाओ, खाना बनाओ, घर साफ करो, पति का टिफिन पैक करो और अगली सुबह से फिर यही काम. दोनों की दिनचर्या हैम्सटर व्हील में फंसे चूहे जैसी लगती है.

‘थप्पड़’ की ही तरह, इस फिल्म में भी पत्नी की दिनचर्या को इस हद तक दिखाया है कि वो आपके दिमाग में रट जाती है, और ऊबाऊ लगने लगता है.

डायरेक्टर की कोशिश भी शायद यही दिखाने की थी, कि देखो, कितनी ऊबाऊ जिंदगी जीती हैं इस देश की महिलाएं, जिन्हें ‘मां’ और ‘होममेकर’ जैसे बड़े दर्जे तो दिए जाते हैं, लेकिन इसके बदले उनकी ख्वाहिशों को रौंद दिया जाता है.
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डायरेक्टर ने सिर्फ किचन को बेड़ियों के तौर पर नहीं दिखाया है, बल्कि धर्म पर भी वार किया है. एक सीन में दिखाया गया है कि कैसे महिलाओं के लिए धर्म के नियम-कायदे पत्थर की लकीर बना दिए जाते हैं, लेकिन मर्द अपनी सुविधा मुताबिक इसमें बदलाव करते रहे हैं. जैसे ‘शुद्ध’ होने के लिए अगर गौमूत्र या गोबर का सेवन नहीं कर सकते, तो नदी में नहा लो!!!

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खामोशी वाले सीन सबसे ज्यादा शोर मचाते हैं

फिल्म में किसी भी तरह का म्यूजिक नहीं है. सबसे ज्यादा शोर वही सीन मचाते हैं, जिसमें कोई डायलॉग नहीं है. ऐसे सीन ज्यादातर किचन में शूट किए गए हैं. कूकर की सीटी, दाल में तड़का, सब्जी काटना... ऐसी आवाजों के जरिये डायरेक्टर ने सबसे पावरफुल सीन शूट किए हैं.

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फिल्म की एक और खासियत है. इसमें किसी भी किरदार को कोई नाम नहीं दिया गया है. क्योंकि ये किसी एक की स्टोरी नहीं, बल्कि कहानी घर-घर की है.

‘द ग्रेट इंडियन किचन’ एक रॉ फिल्म है, जिसे भव्य सेट या चमकते कपड़ों से सजाया नहीं गया है, बल्कि फिल्म को डॉक्यूमेंट्री स्टाइल में पेश किया गया है ताकि इसकी रॉनेस बरकरार रहे और फिल्म जो कहना चाहती है वो आसानी से कह पाए. और फिल्म इसमें पूरी तरह सफल रही है.

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